Thursday, February 24, 2011

कुत्ते

ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
कि बख़शा गया जिन्हें ज़ौके-गदाई ( भीख माँगने का काम )
ज़माने की फटकार सरमाया ( दौलत ) इनका
जहाँ भर की दुत्कार इनकी कमाई
ना आराम शब को ना राहत सवेरे
गलाज़त ( गन्दगी ) में होते हैं इनके बसेरे
जो बिगड़ें तो एक दूसरे से लड़ा दो
ज़रा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकर खाने वाले
ये फ़ाकों से उकता के मर जाने वाले
ये मज़लूम मख़लक ( जनता ) गर सर उठाये
तो इंसान सब सरकशी (घमंड ) भूल जाए
ये चाहें तो दुनियां को अपना बना लें
ये आकाओं की हड्डियाँ तक चबा लें
कोई इनको एहसासे-ज़िल्लत दिला दे
कोई इनकी सोई हुई दम हिला दे

-फैज़

Sunday, December 19, 2010

यादें

याद है मुझे वो घर,
जिसके आँगन में, ठण्ड के मौसम में
गुनगुनी धूप बिखरी रहती थी,
जो सरकती रहती थी पल-पल,
और साथ उसके खटिया भी
जिस पर मैं लेटा रहता था..
वो धूप जब दीवार पर टंग जाती,
तो सोचा करता,
काश मैं भी दीवार पर खटिया डालकर सो सकता..और कुछ देर...

उस घर के आँगन में
एक पेड़ था, हरा, कटहल का..
माँ बताती कि किसी ने उस पेड़ में
लोहे की कील ठोक दी है
जो फलता नहीं वो..
फिर भी
आँगन के एक कोने में खड़ा वो पेड़
बहुत सुन्दर था..
मुझे हमेशा लगता
उस पेड़ की जड़ों के पास साँपों की बाम्बी है
और उसमें रहने वाले सांप मेरे रक्षक हैं..
उस पेड़ की जड़ों के पास ही हम नारियल फोड़ते,
सफ़ेद रसगुल्लों से भरे वो टिन के डिब्बे खोलते
जो शायद अब बाज़ार में नहीं मिलते..
दिवाली के दिन पूजी गई मिट्टी की मूर्तियाँ
नदी में सिराने से पहले
कई दिनों तक उसी पेड़ की
जड़ों के पास पड़ी रहतीं..गलती रहतीं...

उस आँगन में पापा ने
एक झूला भी लगवाया था,
जिस पर मैं, मेरी बहन और मोहल्ले के दोस्त
अकसर ही चढ़े रहते थे..
मैं उस पर बैठ कर झूलता तो मुझे चक्कर आता...

उस आँगन से सटे दो कमरे थे,
जिनमें से एक रसोई थी..
दूसरा कमरा मुझे डरावना लगता,
इतना कि दिन में भी मुझे उसमे अकेले जाते डर लगता..
पर रसोई,
वो तो केंद्र थी घर का..
स्कूल से लौटते ही
हम घर में फ़ैली गंध पहचनाने की कोशिश करते..
कि माँ ने आज क्या पकाया होगा..
माँ जब शाम को रसोई में
कोयले की सिगड़ी पर रोटियां सेंकती..
तो हम उसके साथ रसोई में ही बैठकर
स्कूल का काम कर लेते..
फिर माँ से आटा मांगकर,
कभी उससे कछुआ बनाते तो कभी चिड़िया,
और फिर रख देते उन्हें सिगड़ी के अन्दर,
पकने के लिए..
अकसर ही कच्चे रह जाते थे वो..भीतर से...

रसोई से संटा हुआ था
सोने का कमरा..
हम सभी साथ ही सोते वहां..
मैं और मेरी बहन,
दोनों ही पापा के बगल में सोना चाहते..
वो हमें अपने दोनों और लिटा लेते और
कहानियां सुनाते..
ऊपर छत को देखते हुए..
क्यूंकि हम दोनों ही जिद्द करते
हमारी ओर देखकर कहानी सुनाने की..
मेरी बहन ने मुझे याद दिलाया
कैसे वो एक दफा भोपाल गए थे..
और हम दोनों ही
उनका तकिया पकड़ कर सोये थे..
शायद रोये भी थे...

और मुझे याद है एक वाकया,
जब मैं घर पर अकेला था..
दरवाज़े के ऊपर टंगी
भगवान् की फोटो के सामने
हाथ जोड़कर रो रहा था..
एक टीचर ने परीक्षा के दौरान
मेरी कॉपी से देखकर किसी बच्चे को
कुछ उत्तर बताये थे..
मैं भगवान् से मना रहा था
उस बच्चे के मुझसे ज्यादा नंबर ना आयें...

कितना अजीब था बचपन..मेरा..
शायद हर किसी का होता है..
अनोखा...

मन के किसी कोने में
ना जाने कहाँ छुपकर
यादें रहती हैं..
कभी जब मन भारी होता है..
तो बरसने लगती हैं......

Saturday, February 20, 2010

कुछ आंकड़े

1) Incidents of Terrorist attack 1999-2008 - 61301
Number of Deaths- 18360

http://www.lead.timesofindia.com/MediaRoom.aspx?URLName=LeadIndia09.a...
http://www.easydriveforum.com/showthread.php?t=2214

2) Deaths due to road accidents in India - 250/daily
In 10 years - more than 900000

1,05,749 deaths in the year 2006 alone

http://www.easydriveforum.com/showthread.php?t=2214
http://www.merinews.com/article/road-accident-deaths-highest-in-india...

3) Farmers Suicide in past 10 years - 200000

4) Occupational deaths - 47000 in the year 2003 alone

http://www.ilo.org/global/About_the_ILO/Media_and_public_information/...

5) Deaths because of TB - 331268 in 2006 alone.

http://www.searo.who.int/en/Section10/Section2097/Section2100_14797.htm
http://www.who.int/inf-new/tuber3.htm

6)At the very least, 22327 die every year cleaning sewage.

http://www.tehelka.com/story_main36.asp?filename=Ne081207DYING.asp

7) people died in 26/11 - 195

8) 1,200 people were killed in violence linked to the insurgency in 2009

http://beta.thehindu.com/news/national/article145699.ece?homepage=true

Tuesday, May 12, 2009

मैं चाहता हूँ कि स्पर्श बचा रहे

मैं चाहता हूँ कि स्पर्श बचा रहे

वह नहीं जो कंधे छीलता हुआ

आततायी की तरह गुज़रता है

बल्कि वह जो एक अनजानी यात्रा के बाद

धरती के किसी छोर पर पहुँचने जैसा होता है

मैं चाहता हूँ स्वाद बचा रहे

मिठास और कड़वाहट से दूर

जो चीज़ों को खाता नहीं है

बल्कि उन्हें बचाए रखने की कोशिश का

एक नाम है

एक सरल वाक्य बचाना मेरा उद्देश्य है

मसलन यह कि हम इंसान हैं

मैं चाहता हूँ इस वाक्य की सचाई बची रहे

सड़क पर जो नारा सुनाई दे रहा है

वह बचा रहे अपने अर्थ के साथ

मैं चाहता हूँ निराशा बची रहे

जो फिर से एक उम्मीद

पैदा करती है अपने लिए

शब्द बचे रहें

जो चिड़ियों की तरह कभी पकड़ में नहीं आते

प्रेम में बचकानापन बचा रहे

कवियों में बची रहे थोड़ी लज्जा ।

(1993)

-मंगलेश डबराल

अपनी असुरक्षा से


अगर देश की सुरक्षा ऐसे ही होती है
कि बेज़मीरी ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाए
आँख की पुतली में "हाँ" के अलावा कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुक जाए
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.

हम तो समझे थे देश को घर सी पवित्र चीज़
जहाँ घुटन नहीं होती
मनुष्य बहती बारिश की गूँज के तरह गलियों में बहता है
गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है
हम तो समझे थे देश को आलिंगन जैसे एक अहसास का नाम
हम तो देश को समझे थे मेहनत जैसा नशा कोई
हम तो देश को समझे थे कुर्बानी जैसे वफ़ा
पर जो देश
रूह की ललकार का कारखाना है
पर जो देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे खतरा है

अगर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्जे के पहाडों पर गिरते पत्थरों की तरह टूटता रहे वजूद हमारा
कि तनख्वाहों के मुंह पर थूकती
कीमतों की बेशुमार हंसी
कि अपने लहू में नहाना ही तीर्थ का पुन्य होता है
तो हमें अमन से खतरा है

अगर देश के सुरक्षा ऐसी ही होती है
कि हर हड़ताल को दबाकर अमन को रंग चढ़ता है
कि वीरगति बस सीमायों पर मर के परवान चढ़ती है
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलता है
अफल हुकूमत के कुँए पर जुटकर ही धरती सींचेगी
मेहनत को राजमहल के दरवाज़े पर दस्तक ही बनना है
तो हमें देश के सुरक्षा से खतरा है

-पाश

Tuesday, April 21, 2009

एक दोहा तुलसीदास का

तुलसी सरनाम, गुलाम है रामको, जाको चाहे सो कहे वोहू.
मांग के खायिबो, महजिद में रहिबो, लेबै को एक देबै को दोउ.

(मेरा नाम तुलसी है, मैं राम का गुलाम हूँ, जिसको जो मन कहे कहता हूँ, मांग के खाता हूँ, मस्जिद में रहता हूँ, न किसी से लेना, न किसी को देना.)

-तुलसीदास, (विनय चरितावली)

तुलसीदास, राम के परमभक्त थे. उन्होंने अपनी रचनाये, संस्कृत में नहीं, साधारण लोगों में प्रचलित अवधी भाषा में की, जिससे वो सब लोगों तक पहुचेइसी कारण उस समय के ब्राह्मण उनकी गिनती अपने बीच नहीं करते थेतुलसीदास ब्राह्मणों द्वारा मंदिर से निकाले जाने के बाद अयोध्या की एक मस्जिद में रहते थे

- पुस्तक "झूठ और सच" से (राम पुनियानी)

Monday, April 20, 2009

स्वर्ग से विदाई

भाईयों और बहनों!

अब ये आलिशान इमारत
बन कर तैयार हो गयी है.
अब आप यहाँ से जा सकते हैं.
अपनी भरपूर ताक़त लगाकर
आपने ज़मीन काटी
गहरी नींव डाली,
मिटटी के नीचे दब भी गए.
आपके कई साथी.

मगर आपने हिम्मत से काम लिया
पत्थर और इरादे से,
संकल्प और लोहे से,
बालू, कल्पना और सीमेंट से,
ईंट दर ईंट आपने
अटूट बुलंदी की दीवार खड़ी की.
छत ऐसी कि हाथ बढाकर,
आसमान छुआ जा सके,
बादलों से बात की जा सके.
खिड़कियाँ क्षितिज की थाह लेने वाली,
आँखों जैसी,
दरवाजे, शानदार स्वागत!

अपने घुटनों और बाजुओं और
बरौनियों के बल पर
सैकडों साल टिकी रहने वाली
यह जीती-जागती ईमारत तैयार की
अब आपने हरा भरा लान
फूलों का बागीचा
झरना और ताल भी बना दिया है
कमरे कमरे में गलीचा
और कदम कदम पर
रंग-बिरंगी रौशनी फैला दी है
गर्मी में ठंडक और ठण्ड में
गुनगुनी गर्मी का इंतजाम कर दिया है

संगीत और न्रत्य के
साज़ सामान
सही जगह पर रख दिए हैं
अलगनियां प्यालियाँ
गिलास और बोतलें
सज़ा दी हैं
कम शब्दों में कहें तो
सुख सुविधा और आजादी का
एक सुरक्षित इलाका
एक झिलमिलाता स्वर्ग
रच दिया है

इस मेहनत
और इस लगन के लिए
आपकी बहुत धन्यवाद
अब आप यहाँ से जा सकते हैं.
यह मत पूछिए की कहाँ जाए
जहाँ चाहे वहां जाएँ
फिलहाल उधर अँधेरे में
कटी ज़मीन पर
जो झोपडे डाल रखें हैं
उन्हें भी खाली कर दें
फिर जहाँ चाहे वहां जाएँ.

आप आज़ाद हैं,
हमारी जिम्मेदारी ख़तम हुई
अब एक मिनट के लिए भी
आपका यहाँ ठहरना ठीक नहीं
महामहिम आने वाले हैं
विदेशी मेहमानों के साथ
आने वाली हैं अप्सराएँ
और अफसरान
पश्चिमी धुनों पर शुरू होने वाला है
उन्मादक न्रत्य
जाम झलकने वाला है
भला यहाँ आपकी
क्या ज़रुरत हो सकती है.
और वह आपको देखकर क्या सोचेंगे
गंदे कपडे,
धुल से सने शरीर
ठीक से बोलने और हाथ हिलाने
और सर झुकाने का भी शऊर नहीं
उनकी रुचि और उम्मीद को
कितना धक्का लगेगा
और हमारी कितनी तौहीन होगी
मान लिया कि इमारत की
ये शानदार बुलंदी हासिल करने में
आपने हड्डियाँ लगा दीं
खून पसीना एक कर दिया
लेकिन इसके एवज में
मजदूरी दी जा चुकी है
अब आपको क्या चाहिए?
आप यहाँ ताल नहीं रहे हैं
आपके चेहरे के भाव भी बदल रहे हैं

शायद अपनी इस विशाल
और खूबसूरत रचना से
आपको मोह हो गया है
इसे छोड़कर जाने में दुःख हो रहा है
ऐसा हो सकता है
मगर इसका मतलब यह तो नहीं
कि आप जो कुछ भी अपने हाथ से
बनायेंगे,
वह सब आपका हो जायेगा
इस तरह तो ये सारी दुनिया
आपकी होती
फिर हम मालिक लोग कहाँ जाते
याद रखिये
मालिक मालिक होता है
मजदूर मजदूर
आपको काम करना है
हमे उसका फल भोगना है
आपको स्वर्ग बनाना है
हमे उसमें विहार करना है
अगर ऐसा सोचते हैं
कि आपको अपने काम का
पूरा फल मिलना चाहिए
तो हो सकता है
कि पिछले जन्म के आपके काम
अभावों के नरक में
ले जा रहे हों
विश्वास कीजिये
धर्म के सिवा कोई रास्ता नहीं
अब आप यहाँ से जा सकते हैं

क्या आप यहाँ से जाना ही
नहीं चाहते ?
यहीं रहना चाहते हैं,
इस आलिशान इमारत में
इन गलीचों पर पाव रखना चाहते हैं
ओह! ये तो लालच की हद है
सरासर अन्याय है
कानून और व्यवस्था पर
सीधा हमला है
दूसरों की मिलकियत पर
कब्जा करने
और दुनिया को उलट-पुलट देने का
सबसे बुनियादी अपराध है
हम ऐसा हरगिज नहीं होने देंगे
देखिये ये भाईचारे का मसला नहीं हैं
इंसानीयत का भी नहीं
यह तो लडाई का
जीने या मरने का मसला है
हालाँकि हम खून खराबा नहीं चाहते
हम अमन चैन
सुख-सुविधा पसंद करते हैं
लेकिन आप मजबूर करेंगे
तो हमे कानून का सहारा लेने पडेगा
पुलिस और ज़रुरत पड़ी तो
फौज बुलानी होगी
हम कुचल देंगे
अपने हाथों गडे
इस स्वर्ग में रहने की
आपकी इच्छा भी कुचल देंगे
वर्ना जाइए
टूटते जोडों, उजाड़ आँखों की
आँधियों, अंधेरों और सिसकियों की
मृत्यु गुलामी
और अभावों की अपनी
बेदरोदीवार दुनिया में
चुपचाप
वापिस
चले जाइए!

-गोरख पाण्डेय