Friday, May 23, 2008

रोटी

कुछ दिनों पहले दो पुलिस वालों से, ढेर सारी बातें की, उनके बारे में, उनके घर के बारे में, उनके बच्चों के बारे में. इतनी बातें करने के बाद मुझे लगा कि वो भी इंसान ही होते हैं हमारी तरह, वर्ना मैं तो अभी तक उन्हें रावण सेना का सिपाही ही समझता था. बातें करते-करते एक सवाल जो ज़हन में आया और जो मैंने उनसे पूछा भी कि क्या आपको कभी उन लोगों पर हाथ उठाना पड़ा हो, जिनकी बातें आपको सही लगती रही हों, जिनसे आपको सहानुभूति रही हो. उन्होंने कहा कि, हाँ कई बार ऐसे मौके पड़ते हैं, पर क्या करें रोटी के लिए सब कुछ करना पड़ता हैं. बाद में इन सब बातों पर सोच रहा था, अपने आस-पास गौर से देखा तो पाया कि हर तरफ तो रोटी की ही तो लडाई है. बस यही सब सोच रहा था तो कुछ लिखा गया मुझसे.

मान लो गर आ खड़ी हुई एक दिन
तुम्हारी रोटी
मेरी रोटी के सामने
तो क्या
अपनी रोटी की खातिर
तुम मेरा खून बहाओगे?

फिर क्या मेरे खून से
सनी रोटी खा पाओगे?
अपनी भूख मिटा पाओगे?

तुम कहते हो कि
गर ऐसा न करोगे तो
घर पर बच्चे भूखे मर जायेंगे,
तो क्या मेरे बच्चे बिना रोटी के जी सकते हैं?
क्या उन्हें भूख नही लगती?

वैसे फर्क भी क्या है,
मेरे और तुम्हारे बच्चों में,
दोनों ही घर पर भूखें हैं।
बच्चे तो उनके भरपेट सोते हैं,
जिनके हितों की खातिर,
तुम मेरा खून बहाने को तैयार हो

क्या तुम्हे यह नही लगता कि
जितना फर्क हमारे बच्चों के बीच है,
उतना ही हमारे भी,
या उतना भी नहीं।

हम दोनों ही रोटी कि लडाई लड़ रहे हैं,
वो भी सिर्फ़ दो वक्त की,
और कभी क्या इससे कुछ अधिक
चाहा है हमने?

पर सिर्फ़ इतने के लिए ही
एक दूसरे का खून बहा रहे हैं
हम,
ज़रा सोचों तो
दो वक्त की रोटी की
क्या कीमत
चुका रहे हैं
हम?

पर कीमत आजकल खून की
कहाँ कोई समझता है?
जानते हो बाज़ार में यही
आजकल सस्ता है।

जैसा जिसका मन है
वैसे बहा रहा है,
जाने इसे बहाकर
वो क्या पा रहा है?

खैर उसे जो भी मिले
खून बहता मेरा या तुम्हारा है,
आज तुम मुझे अपने से अलग समझते हो,
इसलिए मेरा खून भी तुम्हे अलग
नज़र आता है,

पर यकीन है मुझको
कि एक दिन तुम मेरी बातें समझोगे।
तब हम मिलजुलकर अपनी रोटी की लडाई लडेंगे,
जो भी रूखी-सूखी होगी
मिल-बांटकर खायेंगे
पर एक-दूसरे का खून
हरगिज़ नही बहायेंगे।

-Vivek

द्वंद: एक भिक्षुक और मेरे बीच चले संवाद का एक अंश

मैं कौन हूँ?
कुछ भी तो नहीं, और
अगर ये मान भी लूं कि कुछ हूँ
तो भी तो वो भ्रम कुछ ही दिनों में टूट सा जाता है
और मैं कुछ से कुछ नहीं रह जाता हूँ.............

भिक्षुक:

परछाई भ्रम नहीं है रूप तुम्हारा
वेदना क्यों, उस संवेदना से
जो व्याप्त रहती, तुझ में, मुझ में, हर संशय में.............

जानता हूँ भ्रम नहीं, है सत्य ये संवेदना
पर कर सकूं जब तक ना अनुभव, तब तक रहेगी वेदना.............

भिक्षुक:

परछाई धुंदली हो जाए, पर इस अनुभव का स्पर्श न होगा
पर व्यर्थ नहीं है संशय तुझमे
वेदना की अंतर्द्वंद का ये कैसा कोलाहल है ?
पिछले संस्मरणों में से फिर कोई पृष्ठ उलटकर देख
क्षुधा नहीं उन सुर तालों में, जो गीत तुम्हारे सपने हैं,
पलभर थामों साँसे अपनी, आँखों में फिर नीर वही है.
आभाष नहीं था, यूं सुन्दर होगा झींगुर सा प्रश्न तुम्हारा
जब दीप जले तुम आहट करना
प्रश्नों के सन्दर्भ तुम्हारे, आंच रहेगी संवेदना में
और
कुछ गीत यदि ढल पाए
गा लेना तुम उनको
स्पर्श यही अनुभव में ................

कितने पृष्ठ उलटकर देखूं , हर पन्ने में व्यथा वोही है
हम-तुम जो हैं भोग रहे, व्यथा वो कोई नयी नहीं हैं..

समय-समय पर हम सबने, है इन प्रश्नों को झेला,
हर संशयी इन राहों पर चला ही होगा कभी अकेला..

संशय जब तक मन में ना हो, पाता कोई ज्ञान नहीं है,
क्षुदा बिना ज्यों सामने रखे भोजन का भी मान नहीं है...

पर, रात भले हो कितनी काली, ख़त्म उसे होना होता है,
अंतर्मन, जो अंधियारा है, कभी खत्म तो वो भी होगा,
जब,
किसी से एक मुट्ठी उजाला लेकर मैं उसे मिटा दूंगा....