Friday, May 23, 2008

द्वंद: एक भिक्षुक और मेरे बीच चले संवाद का एक अंश

मैं कौन हूँ?
कुछ भी तो नहीं, और
अगर ये मान भी लूं कि कुछ हूँ
तो भी तो वो भ्रम कुछ ही दिनों में टूट सा जाता है
और मैं कुछ से कुछ नहीं रह जाता हूँ.............

भिक्षुक:

परछाई भ्रम नहीं है रूप तुम्हारा
वेदना क्यों, उस संवेदना से
जो व्याप्त रहती, तुझ में, मुझ में, हर संशय में.............

जानता हूँ भ्रम नहीं, है सत्य ये संवेदना
पर कर सकूं जब तक ना अनुभव, तब तक रहेगी वेदना.............

भिक्षुक:

परछाई धुंदली हो जाए, पर इस अनुभव का स्पर्श न होगा
पर व्यर्थ नहीं है संशय तुझमे
वेदना की अंतर्द्वंद का ये कैसा कोलाहल है ?
पिछले संस्मरणों में से फिर कोई पृष्ठ उलटकर देख
क्षुधा नहीं उन सुर तालों में, जो गीत तुम्हारे सपने हैं,
पलभर थामों साँसे अपनी, आँखों में फिर नीर वही है.
आभाष नहीं था, यूं सुन्दर होगा झींगुर सा प्रश्न तुम्हारा
जब दीप जले तुम आहट करना
प्रश्नों के सन्दर्भ तुम्हारे, आंच रहेगी संवेदना में
और
कुछ गीत यदि ढल पाए
गा लेना तुम उनको
स्पर्श यही अनुभव में ................

कितने पृष्ठ उलटकर देखूं , हर पन्ने में व्यथा वोही है
हम-तुम जो हैं भोग रहे, व्यथा वो कोई नयी नहीं हैं..

समय-समय पर हम सबने, है इन प्रश्नों को झेला,
हर संशयी इन राहों पर चला ही होगा कभी अकेला..

संशय जब तक मन में ना हो, पाता कोई ज्ञान नहीं है,
क्षुदा बिना ज्यों सामने रखे भोजन का भी मान नहीं है...

पर, रात भले हो कितनी काली, ख़त्म उसे होना होता है,
अंतर्मन, जो अंधियारा है, कभी खत्म तो वो भी होगा,
जब,
किसी से एक मुट्ठी उजाला लेकर मैं उसे मिटा दूंगा....

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