Monday, June 16, 2008

Sabhyata

भवानी प्रसाद मिश्र जी की लिखी यह कविता पर कुछ कहने की जरूरत नही लगती मुझे । जाने कब लिखी गयी हो यह पर आज भी कितनी सही लगती है

मैं असभ्य हूँ क्योंकि खुले नंगे पांवों चलता हूँ
मैं असभ्य हूँ क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूँ
मैं असभ्य हूँ क्योंकि चीर कर धरती धान उगाता हूँ
मैं असभ्य हूँ क्योंकि ढोल पर बहुत जोर से गाता हूँ

आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं उपर
आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर
आप सभ्य हैं क्योंकि धान से भरी आपकी कोठी
आप सभ्य हैं क्योंकि जोर से पढ़ पाते हैं पोथी
आप सभ्य हैं क्योंकि आपके आपके कपडे स्वयं बने हैं
आप सभ्य हैं क्योंकि जबड़े खून सने हैं


आप बड़े चिंतित हैं मेरे पिछड़ेपन के मारे
आप सोचते हैं कि सीखता यह भी ढंग हमारे
मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने
धोती-कुरता बहुत ज़ोर से लिपटाए हूं याने!

भवानी प्रसाद मिश्र




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