Monday, April 20, 2009

सोचो तो

सोचो तो

बिलकुल मामूली चीजें हैं
आग और पानी
मगर सोचो तो कितना अजीब लगता है
होना
आग और पानी का
जो विरोधी हैं
मगर मिलकर पहियों को गति देती है

वैसे, सोचो तो अँधेरे में चमकते
ये हजारों हाथ हैं
इतिहास के पहियों को
रोटी-रचना और मुक्ति के
पड़ावों की और बढ़ाते हुए
इतिहास की किताबों में
इनका जिक्र भी ना होना
सोचो तो कितना अजीब है

सोचो तो
मामूली तौर पर
जो अनाज उगाते हैं
उन्हें दो जून अन्न ज़रूर मिलना चाहिए
उनके पास कपडे ज़रूर होने चाहिए
जो उन्हें बुनते हैं
और उन्हें प्यार मिलना ही चाहिए
जो प्यार करते हैं
मगर सोचो तो
यह भी कितना अजीब है
कि उगाने वाले भूखें रहते हैं
और उन्हें पचा जाते हैं,
चूहे और बिस्तरों पर
पड़े रहने वाले लोग
बुनकर फटे चीथडों में रहते हैं,
और अच्छे से अच्छे कपडे
प्लास्टिक की मूर्तियाँ पहने होती हैं
गरीबी में प्यार भी नफरत करता हैं
और पैसा नफरत को भी
प्यार में बदल देता है

सोचो इस तरह कितनी अजीब और
कभी-कभी एकदम उलटी
होती हैं चीज़ें
जिन्हें हम मामूली समझकर चलते हैं

वैसे, सोचो तो सोचने को
बहुत कुछ है मगर सोचो तो
यह भी कितना अजब है
कि हम सोच सकते हैं
मसलन हम सोच सकते हैं
कि फसल ज़मींदारों के बिना भी
उग सकती है
जैसे परमाणु अस्त्रों के बिना भी
कायम हो सकती है शाँति
जो कल कारखाने अपने हाथों से चलाते हैं,
वे उनके मालिक भी हो सकते हैं
पानी जोकों के बिना भी बहता रह सकता है
और आग झोपडे जलाने के लिए नहीं
बल्कि ठण्ड से कापते लोगों को
बचाने के काम आ सकती है

सोचो तो सिर्फ सोचने से
कुछ होने-जाने का नहीं
जबकि करने को पड़े हैं,
उलटी चीज़ों को उलट देने जैसे जरूरी
और ढेर सारे काम

वैसे, सोचो तो यह भी कितना अजीब है
कि बिना सोचे भी
कुछ होने जाने का नहीं
जबकि
होते हो
इसीलिए सोचते हो.

-गोरख पाण्डेय

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